मौण मेले का इतिहास
स्थान :- टिहरी गढ़वाल
शुरुआत :- 1866 से (विभिन्न स्त्रोतों से)
अक्षांश व देशांतर :- 30°30'49.3"N 77°59'57.4"E,
रेंज :- जौनपुर रेंज ।
राज्य :- उत्तराखंड (भारत)
मौण में शामिल जिले :- टिहरी, देहरादून, उत्तरकाशी ।
उद्देश्य :- मछली का सामुहिक शिकार/पकड़ना ।
परिचय :- एकता और संस्कृति को साझा करने का ।
देहरादून से दूरी :- लगभग 70 किमी0
विकासनगर से दूरी :- लगभग 60 किमी0
बड़कोट से दूरी :- लगभग 58 किमी0
थत्यूड़ से दूरी :- लगभग 48 किमी0
कुल लोगों की सँख्या :- प्रतिवर्ष हजारों लोग ।
टिमरू का पाउडर डालने की शुरुआत :- भिंडा का ढुंघु स्थान से ।
उत्तराखंड में एक ऐसा मेला है, जिसमें मछलियों का सामूहिक शिकार होता है। इसमें 50-100 लोग नहीं, बल्कि हजारों संख्या में लोग नदी में मछली को पकड़ते हैं ।
उत्तराखंड अपने रीति रिवाजों और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। आज भी यहां कई ऐसी परंपराएं जिंदा हैं, इनमें से एक है मौण मेला। इस मेले के तहत साल में एक बार अगलाड़ नदी में मछलियां पकड़ने का ऐतिहासिक त्योहार मनाया जाता है।
क्या है मौण.......
मौण, टिमरू के तने की छाल को सुखाकर तैयार किए गए महीन चूर्ण को कहते हैं। इसे पानी में डालकर मछलियों को बेहोश करने में प्रयोग किया जाता है।
टिमरू का उपयोग दांतों की सफाई के अलावा कई अन्य औषधियों में किया जाता है।
ऐसे तैयार किया जाता है, मौण के लिए दो महीने पहले से ही ग्रामीण टिमरू के तनों को काटकर इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं। मेले से कुछ दिन पूर्व टिमरू के तनों को आग में हल्का भूनकर इसकी छाल को ओखली या घराटों में बारीक पाउडर के रूप में तैयार किया जाता है।
इसलिए मनाया जाता है मौण.....
अगलाड़ नदी के पानी से खेतों की सिंचाई भी होती है। मछली मारने के लिए नदी में डाला गया टिमरू का पाउडर पानी के साथ खेतों में पहुंचकर चूहों और अन्य कीटों से फसलों की रक्षा करता है।
राजशाही से चली आ रही है परंपरा.......
ये मेला टिहरी रियासत के राजा नरेंद्र शाह ने स्वयं अगलाड़ नदी में पहुंचकर शुरू किया था। वर्ष 1844 में आपसी मतभेदों के कारण यह बंद हो गया। वर्ष 1949 में इसे दोबारा शुरू किया गया। राजशाही के जमाने में अगलाड़ नदी का मौण उत्सव राजमौण उत्सव के रूप में मनाया जाता था। उस समय मेले के आयोजन की तिथि और स्थान रियासत के राजा तय करते थे।
एकता का प्रतीक है मौण मेला !
मौण को मौणकोट नामक स्थान से अगलाड़ नदी के पानी में मिलाया जाता है। इसके बाद हजारों की संख्या में बच्चे, युवा और वृद्ध नदी की धारा के साथ मछलियां पकड़नी शुरू कर देते हैं। यह सिलसिला लगभग चार किलोमीटर तक चलता है, जो नदी के मुहाने पर जाकर खत्म होता है।
विशेषज्ञों के अनुसार टिमरू का पाउडर जलीय जीवों को नुकसान नहीं पहुंचाता। इससे मात्र कुछ समय के लिए मछलियां बेहोश हो जाती हैं और इस दौरान ग्रामीण मछलियों को अपने कुंडियाड़ा, फटियाड़ा, जाल और हाथों से पकड़ते हैं। जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती, वह बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं।
"जौनपुर, जौनसार और रंवाई इलाकों का जिक्र आते ही मानस पटल पर एक सांस्कृतिक छवि उभर आती है. यूं तो इन इलाकों के लोगों में भी अब परंपराओं को निभाने के लिए पहले जैसी गम्भीरता नहीं है लेकिन समूचे उत्तराखण्ड पर नजर डालें तो अन्य जनपदों की तुलना में आज भी इन इलाकों में परंपराएं जीवित हैं. पलायन और बेरोजगारी का दंश झेल रहे उत्तराखण्ड के लोग अब रोजगार की खोज में मैदानी इलाकों की ओर रूख कर रहे हैं लेकिन रंवाई—जौनपुर एवं जौनसार—बावर के लोग अब भी रोटी के संघर्ष के साथ-साथ परंपराओं को जीवित रखना नहीं भूलते. बुजुर्गो के जरिये उन तक पहुंची परंपराओं को वह अगली पीड़ी तक ले जाने के हर संभव कोशिश कर रहे हैं.
मौण मेला उत्तराखण्ड की परंपराओं में अनूठा मेला है, जिसमें दर्जनों गांव के लोग सामूहिक रूप से मछलियों का शिकार करते हैं !
जौनपुर विकासखण्ड की अगलाड़ नदी में मौण मेले के मौके पर हजारों की संख्या में लोग ढोल-नगाड़ों के साथ पहुंचते हैं. अगलाड़ नदी में भिन्डा नामक स्थान पर सभी लोग एकजुट होकर नदी में टिमरू की खाल से बना पाउडर नदी में डालकर मौण मेले की शुरुआत करते हैं. नाच-गाने के साथ ही मछलियों का सामूहिक शिकार शुरू होता है. मछलियों को पकड़ने का यह क्रम लगभग छः घंटे तक मनोरंजक तरीके से चलता है जो बाद में अगलाड़ और यमुना नदी के संगम पर पहुंचते ही समाप्त होता है. मौण मेले के दौरान लोग जाल से भी मछलियों का शिकार करते हैं। देर शाम नाचते-खेलते सभी मौणेर अपने घर-गांव की ओर लौट आते हैं. इस दिन सभी के घरों में मछली से बने पकवान बनाये जाते हैं ।
राजशाही के दौरान स्वयं टिहरी नरेश इस मेले में शामिल होते थे. बताते हैं कि 1944 में इस मेले के दौरान स्थानीय लोगों में मारपीट हो गई थी जिसके बाद यह मेला महाराजा द्वारा 1949 तक बन्द कर दिया गया. बाद में लोगों ने महाराजा से इस मेले को पुनः शुरू करने का निवेदन किया तो महाराजा ने इसकी अनुमति दे दी.
1949 के बाद इस इलाके के लोग अब भी मौण मेले को उसी उत्साह के साथ मनाते हैं। पिछले एक दशक में मौण मेले में पहले की अपेक्षा अधिक भीड़ उमड़ने लगी है. इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि अब जौनपुर क्षेत्र के अलावा मसूरी, विकासनगर तथा देहरादून से भी भारी संख्या में लोग इस मेले में शिरकत करने पहुंचते हैं. इलेक्ट्रोनिक तथा प्रिन्ट मीडिया द्वारा इस अनूठे मेले का व्यापक प्रचार-प्रसार करने से एक लाभ यह भी हुआ कि मसूरी की सैर करने पहुंचे सैलानी भी इस मेले का मजा लेने अगलाड़ नदी में पहुंचते हैं. इतना ही नहीं पिछले कुछ वर्षों से इस मेले में आने वाले पर्यटक अब इस मेले की तिथि तय होने के बाद ही अपना मसूरी आने का कार्यक्रम तय करते हैं ताकि मसूरी की सैर के साथ-साथ मौण मेले का लुत्फ भी उठा सके.
जौनपुर विकासखण्ड की इडवालस्यूं, लालूर, सिलवाड़, पालीगाड़ तथा दशज्यूला पट्टियां के लोग आज भी मौण मेले को पारंपरिक त्यौहार के रूप में मनाते है ।
वर्तमान समय मे देखा जाए तो मेले किसी न किसी रूप में, हमे अपने सांस्कृतिक विरासत से जोड़े रखते है, आज के समय मे सोशल मीडिया, के जमाने मे लोगों के पास एक दूसरे के लिए समय नही बात करने के लिए लेकिन फिर भी उत्तराखंड के बहुत मेले ऐसे है, जहां आज भी बेटी की याद में कहो या बेटे की याद में या आप सीधे तौर पर ये कहो कि एक दूसरे से मिलने के लिए मेले का आयोजन प्रतिमाह किया जाता है ताकि आपसे मेल मिलाप होता रहे, मै जब मौण मेले की संस्कृति को करीब से समझने का प्रयास करता हूँ तो मुझे स्वम् ये लगता है, लोग ही नही अपितु स्थानीय देव भी साथ मे हमको सहारा देते हुए, मेले का आनंद लेते होंगें ।
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"मैं अपने आप को उत्तराखंड में जन्म लेने पर गौरवशाली महसूस करता हूं "
"जय देवभूमि उत्तराखंड"
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