रसायन विज्ञान एवं जैव-पूर्वेक्षण प्रभाग वन अनुसंधान संस्थान ने चीड़ की पत्तियों से प्राकृतिक रेशा बनाने की तकनीक सिखायी ।
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रसायन विज्ञान एवं जैव-पूर्वेक्षण प्रभाग वन अनुसंधान संस्थान ने चीड़ की पत्तियों से प्राकृतिक रेशा बनाने की तकनीक सिखायी ।

रसायन विज्ञान एवं जैव-पूर्वेक्षण प्रभाग वन अनुसंधान संस्थान ने चीड़ की पत्तियों से प्राकृतिक रेशा बनाने की तकनीक सिखायी ।


उत्तराखंड के जंगलों में प्रायः आग की घटना एक आम बात है, जंगलो में आग का कारण कुछ भी हो सकता है लेकिन ज्यादातर आग की घटनाएं प्रायः चीड़ क्षेत्र में देखी गयी है जहां आग का कारण पिरूल, कॉन, लीसा आदि है जो वनाग्नि के लिए मुख्यतः जिम्मेदार है ।
वन अनुसंधान संस्थान देहरादून की निर्देशक डॉ रेनू सिंह ने वन विभाग के समस्त स्टाफ एवम कार्यशाला में उपस्थित वन पंचायत अध्यक्ष एवम ग्रामीणों को पिरूल से रेशे बनाने की नवीनतम तकनीक के बारे में बताया । उनके डॉ रेनू सिंह का कहना है कि उत्तराखंड में 16 प्रतिशत भूभाग पर चीड़ क्षेत्र है, तथा चार लाख हेक्टर भाग चीड़ आच्छादित है । चीड़ से रेशे बनाने की अनुमानित लागत प्रति किलो 50 से 90 रुपए के बीच रहती है लेकिन वो रेशे की बारीकी पर निर्भर करता है । 
हम लोग चीड़ के रेशे से जैकेट, कोट, बटुवा, परदे, लैम्प शेड, चटाई, आसन, कालीन, चप्पल, रस्सी आदि बनाये जाते है । वर्तमान में सरकार चीड़ के 10 रुपए प्रतिकिलो चीड़ खरीद रही है ।

इस कार्यशाला में निर्देशक महोदय के द्वारा मसूरी, उत्तरकाशी, अपर यमुना बड़कोट के प्रभागीय वनाधिकारी का अभिनंदन किया जिनके द्वारा इस प्रकार की कार्यशाला को बढ़ावा दिया जा रहा है जिससे अधिक से अधिक लोग इस तकनीक का भरपूर लाभ ले सकें और वनाग्नि की घटनाएं कम से कम हो सकें ।


चीड़ की पत्तियों से प्राकृतिक रेशा

चीड़ (पाईनस रॉक्सबर्गाई सर्ग.) हिमालयी क्षेत्रों में बहुतायत में पाई जाने वाली एक शंकुधारी वृक्ष की प्रजाति हैं। इस प्रजाति के वृक्षों की सुईनुमा आकार की पत्तियों वन बायोमास में अत्यधिक योगदान देती हैं। परंतु यह पत्तियाँ वनाग्नि का प्रमुख कारण बनकर जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता की हानि इत्यादि तथा अनेकों हानिकारक कारकों के लिए जिम्मेदार हैं। चीड के जंगल उत्तर भारत के केन्द्रीय मध्य हिमालयी क्षेत्रों के एक विशाल भूभाग को ढ़के हुए हैं। उत्तराखण्ड में चीड़ की पत्तियाँ भरपूर मात्रा में पाई जाती हैं। इस राज्य के संपूर्ण वन क्षेत्र में से 16.36 प्रतिशत (399329 हैक्टेयर) भूभाग में चीड़ के जंगल आच्छादित हैं। प्रतिवर्ष आरक्षित वन तथा वन पंचायत में पंद्रह लाख मैट्रिक टन से अधिक चीड़ की पत्तियाँ प्राकृतिक रूप से उपलब्ध होती हैं जिनमें से लगभग छह लाख मैट्रिक टन पत्तियाँ उपयोग हेतू उपलब्ध हैं। किंतु प्रचुर मात्रा में उपलब्ध इन चीड़ की पत्तियों का उपयोग न करना कई तरह से हानिकारक है। सर्वप्रथम यह पत्तियाँ अनुपयोगी रह जाती हैं जबकि यह एक अच्छा जैवसंसाधन साबित हो सकती हैं यदि इनसे मूल्यवान उत्पाद बनाए जाएँ। दूसर । दूसरा इन पत्तियों के कारण होने वाली वनाग्नि द्वारा वनों का अत्यधिक विनाश होता है जिससे वनस्पति और जीव जगत का भी व्यापक नुकसान होता है। इसके अलावा इससे पारिस्थितिकीय तंत्र को भी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से व्यापक हानि पहुँचती है तथा यह पत्तियाँ अन्य महत्वपूर्ण वनस्पतियों के उगने में भी पूर्णतया बाधक साबित हो रही हैं। इन पत्तियों के अत्यंत हानिकारक प्रभावों के कारण आज तक इनके प्रभावी एवं सतत प्रबंधन हेतू तार्किक रणनीति की खोज जारी है। इसकी मुख्य वज़ह इनका संग्रहण, वृहत स्तर पर क्रियान्वयन, मशीनों की सामर्थ्यता, स्थिरता, पर्यावरण अनुकूलता एवं प्रक्रिया की लागत तथा दुर्गम क्षेत्रों में कच्चे माल की उपलब्धता इत्यादि हैं। इन सभी जटिल कारकों के कारण इस समस्या का अब तक कोई उपयुक्त समाधान नहीं मिल पाया है।

उपरोक्त पहलुओं को ध्यान में रखते हुए तथा चीड़ की पत्तियों को उपयोग में लाने की मंशा से रसायन विज्ञान एवं जैव-पूर्वेक्षण प्रभाग, वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून द्वारा व्यवस्थित ढंग से इस समस्या के निवारण हेतू एक उपयुक्त एवं तार्किक समाधान खोजने का प्रयास किया गया। इस प्रक्रिया में कई प्रयोग किए गए जिसके फलस्वरूप यहाँ कि प्रयोगशाला में चीड़ की पत्तियों से रेशा निकालने की आसान एवं पर्यावरण के अनुकूल प्रक्रिया विकसित की गई है। इस प्रक्रिया में अधिक जगह, ऊर्जा, उपकरण इत्यादि की आवश्यकता नहीं है। रेशा निकालने की इस प्रक्रिया को बड़े स्तर पर ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में क्रियान्वित किया जा सकता है जहाँ पर प्रचुर मात्रा में चीड़ की पत्तियाँ उपलब्ध हैं। इससे प्राप्त होने वाले रेशे सुंदर पीले रंग के हैं जिनकी लंबाई लगभग 20 से०मी० तक होती है। इन रेशों की समन्वित शक्ति एवं पानी धारण करने की क्षमता भी अच्छी होती हैं। अतः इनका प्रयोग आवश्यकतानुसार विविध कार्यों के लिए किया जा सकता है। प्राप्त किए गए रेशे को कातकर हथकरघा वस्त्र एवं उत्पाद जैसे कि जैकेट, कोट, बटुआ, परदे, लैंप शेड़ इत्यादि बनाए जा सकते हैं। साथ ही इनसे चटाई, आसन, कालीन, चप्पल, रस्सी आदि भी बनाए जा सकते हैं। इनसे निर्मित रस्सी के जालों को पहाड़ी क्षेत्रों में बडी चट्टानों को बाँधने तथा गिरने, फिसलने, खिसकने, लुढ़कने से बचाने के लिए भी उपयोग किया जा सकता है। अतः चीड़ की पत्तियों का उपयोग महत्वपूर्ण उत्पादों के निर्माण हेतू किया जा सकता है जिससे कई सारी समस्याओं का एक साथ निदान हो सकता है। यह उपयोग चीड़ के वन वाले क्षेत्रों में आजीविका बढ़ाने के लिए भी महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। इसके अतिरिक्त पत्तियों से मिलने वाले फायदों से हिमालयी क्षेत्रों में चीड़ के वनों की स्वीकार्यता भी हो पाएगी तथा बहुतायत में उपलब्ध इस जैवसंसाधन को समाज के वंचित समुदायों तक पहुँचाकर उनके गरीबी उन्मूलन में मदद मिलेगी जो कि वर्तमान में वनाग्नि के रूप में प्रकोपक, पोषक तत्वों के रिसाव से होने वाली क्षति एवं उपयोगी प्रजातियों की वृद्धि में अवरोध का कारण बना हुआ है। इस प्रगति से प्रचुर मात्रा में जैवसंसाधन के उपयोग द्वारा हस्तशिल्प एवं हथकरघा के क्षेत्र में भी स्वरोजगार मिल सकेगा। चीड़ की पत्तियों से रेशे को बनाने की अनुमानित लागत 50 से 90 रूपए प्रति किलोग्राम है जो कि रेशे की बारीकी पर निर्भर है।










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VIVEK DOBHAL

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